Kirtilata Ka Punarpath
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Abstract
भारतीय वाङ्ग्मय में राजप्रशस्ति काव्यों की अविछिन्न परंपरा रही है। चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में पाणिनी के ष्पातालविजयश् और ष्जम्बावतीविजयश् से लेकर वामनए उदभट्टए धनंजय के ष्दसरूपकश् से होते हुए तेरहवी शताब्दी में विद्याधरए सत्रहवी शताब्दी में पंडित जगन्नाथ कृत ष्रसगंगाधरश् तक अपने आश्रयदाता की प्रशस्ति में रचित काव्यों की समृद्ध परंपरा मौजूद है। भारतवर्ष में राजप्रशस्ति काव्य की परंपरा और उसकी निर्मिति के कारकों की पड़ताल शोध का दिलचस्प विषय रहा है। आचार्य हजारी प्रसाद दिवेदी ने आदिकालीन साहित्य की सामग्रियों के परिरक्षण में जिन तीन सूत्रों का उल्लेख किया उनमे ष्राजाश्रयश् को सबसे प्रबल और प्रमुख कारक माना था।
पूर्वी भारत में दक्षिण और पश्चिम भारत की तुलना में राज्याश्रित काव्यों की परंपरा का सूत्रपात पहले हुआ। चौदहवी शताब्दी में तिरहुत राज्य ; वर्तमान बिहार का उतरी भागद्ध में बिसइबार.वंश में जन्मे ष्मैथिल कोकिलश् महाकवि विद्यापति ठाकुर रचित ष्कीर्त्तिलताश् ऐतिहासिक चरित.काव्यों की परिपाटी में मील का पत्थर है। ष्कीर्त्तिलताश् महाकवि विद्यापति की सबसे पहली रचना हैएजिसमे राजा कीर्त्तिसिंह की वीरता और प्रशस्ति की गाथा है। विद्यापति ठाकुर का आविर्भाव हिन्दी साहित्य के जिस पटल पर हुआ वह दौर भाषाए साहित्य और इतिहास की दृष्टि से ष्संधिकालश् का काल रहा है। भाषायी विविधता और साहित्यिक वैविध्य के लिहाज से आदिकाल हिन्दी साहित्य का सबसे विवादास्पद किन्तु विचारो के मंथन का काल रहा है।
संस्कृत के विद्वान विद्यापति ने कीर्त्तिलता की रचना देसी भाषा ष्अवहट्टश् में की है। कीर्त्तिलता आदिकालीन हिन्दी साहित्येतिहास की कालजयी रचना है जिसमे दो संस्कृतियो के संक्रमण से निकली अनुगूँज भी है और शिष्ट भाषा संस्कृत से देसी भाषा के बदलने की आहट भी। दरबारी ऐतिहासिक चरित.काव्य परंपरा की परिपाटी का अनुगमन करते हुए भी विद्यापति अपने समय और समाज से मुह मोड़कर नही चले। कीर्तिलता कालजीवी रचना होने के कारण ही कालजयी रचना है। यह रचना मध्यकालीन भारतीय संस्कृति और जीवन का सर्वोत्कृष्ट सार.संग्रह है। चार पल्लवों में रचित कीर्तिलता में अपने प्रिय राजा कीर्त्तिसिंह की वीरता के गुणगान के साथ ही तदयुगीन भारतीय समाज में तुर्की संस्कृति के आगमन से उपजे नए बाज़ारए स्थापत्य.कलाए इस्लाम की असहिष्णुताए हिन्दूओ और स्त्रियो की दयनीय स्थितिए सैन्य संचरणए शासन.प्रणाली के साथ.साथ तुर्की.भोज्य संस्कृति की छाप बिखरी पड़ी है।
भाषायी करवट और दो संस्कृतियो के संक्रमण से निर्मित एक नए भारतीय समाज और इतिहास को बया करता यह ग्रंथ मध्यकालीन इतिहास का मूल्यवान धरोहर है।
ामल ूवतके
राजप्रशस्ति काव्यए संधिकालए अवहट्टए भारतीय और तुर्की संस्कृति का संक्रमणए नया बाज़ारए सैन्य संचरणए तुर्की भोज्य.संस्कृतिए भारतीय गौरव गाथा।