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Dr Jyotsana Diwedi

Abstract

’’न विद्यते असौ सकलेऽपि लोके
यत्रोपमा तस्य गुणैः क्रियेत।
स एव कार्त्स्न्येन गुणान्वितानां
बभूव नृणामुपमानभूतः।।
भारतीय ज्ञानसाधक नृपों में भोज अग्रगण्य हैं। भोज ने अनेक विषयों पर अनेक ग्रन्थ रचे हैं। विविध विद्वानों के विविध ग्रन्थों, टीकाआंे, हस्तलिखित ग्रन्थों के सूचीपत्रों तथा शिलालेखों से भोज के अनेक ग्रन्थों के अभिधान उपलब्ध होते हैं। जिनमें कई ग्रन्थ प्रकाशित हैं, परन्तु कई ग्रन्थ अनुपलब्ध हैं।
1. सरस्वतीकण्ठाभरण (व्याकरण)
2. प्राकृत व्याकरण।
भोज का सरस्वतीकण्ठाभरण व्याकरण पाणिनि की अष्टाध्यायी के आदर्श पर अष्टाध्यायी है। पाणिनि के पश्चात् हुए परिवर्तन तथा संशोधनों को समेटता यह ग्रन्थ पाणिनि की अपेक्षा अधिक सुगम तथा पूर्ण है ऐसा कई इतिहास समालोचकों को मानना हैं। प्राकृत व्याकरण के विषय में विज्ञ मानते हैं कि यह कच्छ के राजा भोजदेव का ग्रन्थ है। इसी का अपरनाम भोजव्याकरण भी है। चन्द्रप्रभुसूरि के ग्रन्थ ’प्रभावकचरितम्’ के श्लोक 4/75 में इसका उल्लेख मिलता है।
’’भोजव्याकरणं ह्येतत् शब्दशास्त्रं प्रवर्त्तते।
असौ हि मालवाधीशो विद्वच्चक्रशिरोमणिः’’।


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Bhoja is the foremost among the Indian knowledge seekers. Bhoj has composed many texts on many subjects. From various texts, commentaries, catalogs and inscriptions of handwritten texts of various scholars, the denominations of many books of Bhoj are available. In which many books are published, but many texts are unavailable.



  1. Saraswatikanthabharan (Grammar)

  2. Prakrit Grammar.


The Saraswatikanthabharan grammar of Bhoja is Ashtadhyayi on the ideal of Panini's Ashtadhyayi. This book, which covers the changes and amendments after Panini, is more accessible and complete than Panini, so many history critics believe that. Regarding Prakrit grammar, experts believe that it is the book of King Bhojdev of Kutch. The name of this is also the food grammar. It is mentioned in verse 4/75 of Chandraprabhusuri's book Prabhakacharitam.

Article Details

CITATION
DOI: 10.54903/haridra.v3i09.10733
Published: 2022-08-17

How to Cite
Diwedi, D. J. . (2022). भोज का व्याकरण एवं काव्यशास्त्रीय प्रदेय / Grammar and Poetic Pradeya of Bhoja. Haridra Journal, 3(8), 38–44. https://doi.org/10.54903/haridra.v3i09.10733

References

  1. (सरस्वती 0 1/1)
  2. (वाक्य0। आगमा 73 तथा वैय्याकरणभूषणसार। स्फोट 072।)
  3. (अष्टा01, 4, 14)
  4. (वैय्या0, वाक्यस्फोट निरूपण)
  5. (सरस्वती 3/20)
  6. (अष्टा. 2/3/22)
  7. (सरस्वती 4/5)
  8. विद्वत्कल्पः का अर्थ है जो विद्वान् से बस थोड़ा सा कम हो।
  9. यहाँ ’’उपमितं व्याघ्रादिभिः सामान्याप्रयोगे’’ सूत्र के अनुसार समास करने पर ’कमल’ के सदृश कमल इस अभेदभाव का उपचारतः ग्रहण होने से सदृशता उत्पन्न होने के कारण हाथों तथा नखों का कमल तथा चन्द्रमा के साथ कथन होने से तथा सामान्य वाचक इव आदि शब्दों का प्रयोग न होने से उत्पन्न का अर्थ तिरस्कृत हो गया है।
  10. सरस्वती0 1/111।
  11. अष्टा0 2/3/65।
  12. अष्टा0 2/6/69।
  13. अष्टा0 3/3/126।
  14. सरस्वती कण्ठाभरण 1/57
  15. अष्टा0 3/3/75।
  16. अष्टा0 3/3/176।
  17. सूत्रवार्त्तिक 3/1/87।
  18. ’रूधादिभ्यः श्नम्’ अष्टा0 3/1/87 तथा ’न दुहस्नुनमां यक्चिणौ’ अष्टा 3/1/89।
  19. अष्टा0 3/1/132।
  20. सरस्वती0 2/56।
  21. अष्टा0 3/4/3।
  22. अष्टा0 3/4/5।
  23. अष्टा0 3/4/2।
  24. अष्टा0 3/4/4।
  25. सरस्वती कण्ठा0 1/129, 156।