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Prof Shiv Prasad Shukla

Abstract

वेद वेदांगों का अध्ययन व्यवस्थित ढंग से समाप्त कर लेने वाला ही धर्म का जिज्ञासु इस ग्रंथ को आधिकारिक ढंग से पढ़ सकता है। अर्थसंग्रह का प्रतिपाद्य विषय भी धर्म ही है। कहीं-कहीं अधर्म के निदर्शन भी होते हैं किन्तु निरसन करने के लिए ही उसका प्रतिपादन किया गया है। अतः जिज्ञासु का ध्यान गौण रूपेण उधर जाता है। धर्म और ग्रंथ (अर्थसंग्रह) में बोध्य बोधक भाव अथवा प्रतिपाद्य-प्रतिपादक भाव सम्बंध है। धर्मानुष्ठान से सामान्यतया स्वर्गादिक फल ही इसका प्रयोजन है। इसीलिए मीमांसा दर्शन के प्रथम सूत्र की अवतारणा ‘‘अथ परमकारुणिको भगवाज्जैमिनिधर्मविवेकाय द्वादशलक्षणी प्रणिनीय (प्रणिनाय) तत्रादौ धर्मजिज्ञासां सूत्रयामास-अथातो धर्मजिज्ञासेति।’’ गहन वेदाध्ययन उपरान्त भगवान् जैमिनि ने धर्म का ज्ञान कराने के लिए बारह लक्षणों वाले मीमांसा दर्शन को अपनी कुशल बुद्धि में समारोपित कर उसके आदि में धर्मविषयक जिज्ञासा को ‘अथातोधर्मजिज्ञासा’ सूत्र द्वारा संक्षेप में विश्लेषित किया। यों देखा जाय तो ‘अथ’ शब्द वेदाध्ययन की निरन्तरता का सूचक है। प्रायः ‘अथ’ शब्द अनेकार्थवाची है। इसके प्रमुख अर्थों में मांगलिक निरन्तरता, आरम्भ प्रश्न और कात्स्नर्ग है। अमरकोश में ‘मंगलानन्तरारम्भप्रश्नकात्र्स्न्येष्वथो अथ’ कहा गया है।

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CITATION
DOI: 10.54903/haridra.v2i06.7729
Published: 2021-09-30

How to Cite
Shukla, P. S. P. (2021). Artha Sangrah Ki Arthvatta. Haridra Journal, 2(6), 03–10. https://doi.org/10.54903/haridra.v2i06.7729

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